लोगों की राय

कविता संग्रह >> आवाजों के घेरे

आवाजों के घेरे

दुष्यन्त कुमार

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :88
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3176
आईएसबीएन :81-267-0519-1

Like this Hindi book 14 पाठकों को प्रिय

17 पाठक हैं

यह संग्रह दुष्यन्त की असमय समाप्त हो गयी काव्य-यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है।

Aavajon Ke Ghere a hindi book by Dushyant Kumar - आवाजों के घेरे - दुष्यन्त कुमार

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

अपने आप से अपने परिवेश और व्यवस्था से नाराज कवि के रुप में दुष्यन्त कुमार की कविताएँ हिन्दी का एक आवश्यक हिस्सा बन चुकी हैं। आठवें दशक के मध्य और उत्तरार्द्ध में अपनी धारदार रचनाओं के लिए बहुचर्चित दुष्यन्त जिस आग में होम हुए, उसे अपनी रचनाओं में लम्बे समय तक महसूस किया जाता रहेगा।

आवाजों के घेरे दुष्यन्त कुमार का एक जरूरी कविता-संग्रह है। इसमें धुआँ-धुआँ होती उस शख्सियत को साफ तौर पर पहचाना जा सकता हैं लेकिन रचनात्मक स्तर पर कवि का यह विरोध व्यवस्था से अधिक अपने आप से है, जहाँ व्यक्ति न होकर वह एक वर्ग है-मुठ्ठियों को बाँधता और खोलता। बाँधना, जो उसकी जरूरत है और खोलना, मजबूरी। एक प्रकार की निरर्थकता और ठहराव का जो बोध इन कविताओं में है, वह सार्थक और गतिशील होने की गहरी छटपटाहट से भरा हुआ है स्पष्टतः कवि का यही द्वन्द्व और छटपटाहट इन कविताओं का रचनाधाय है, जिसे सहज और सार्थक आभिव्यक्ति मिली है।

दुष्यन्त लय के कवि है, इसलिए मुक्तछन्द होकर भी ये कविताएँ छन्दमुक्त नहीं हैं। साथ ही यहाँ उनके कुछ गीत भी हैं और बाद में सामने आयी बेहतरीन गजलों की आहटें भी। संक्षेप में, यह संग्रह दुष्यन्त की असमय समाप्त हो गयी काव्य-यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण पड़ाव है।

आज

अक्षरों के इस निविड़ वन में भटकतीं
ये हजारों लेखनी इतिहास का पथ खोजती हैं
...क्रान्ति !...कितना हँसो चाहे
किन्तु ये जन सभी पागल नहीं।

रास्तों पर खड़े हैं पीड़ा भरी अनुगूँज सुनते
शीश धुनते विफलता की चीख़ पर जो कान
स्वर-लय खोजते हैं
ये सभी आदेश-बाधित नहीं।

इस विफल वातावरण में
जो कि लगता है कहीं पर कुछ महक-सी है
भावना हो...सवेरा हो...
या प्रतीक्षित पक्षियों के गान-
किन्तु कुछ है;
गन्ध-वासित वेणियों का इन्तज़ार नहीं।

यह प्रतीक्षा : यह विफलता : यह परिस्थिति :
हो न इसका कहीं भी उल्लेख चाहे
खाद-सी इतिहास में बस काम आये
पर समय को अर्थ देती जा रही है।

दृष्टान्त



वह चक्रव्यूह भी बिखर गया
जिसमें घिरकर अभिमन्यु समझता था ख़ुद को।
आक्रामक सारे चले गये
आक्रमण कहीं से नहीं हुआ
बस मैं ही दुर्निवार तम की चादर-जैसा
अपने निष्क्रिय जीवन के ऊपर फैला हूँ।
बस मैं ही एकाकी इस युद्ध-स्थल के बीच खड़ा हूँ।

यह अभिमन्यु न बन पाने का क्लेश !
यह उससे भी कहीं अधिक क्षत-विक्षत सब परिवेश !!
उस युद्ध-स्थल से भी ज़्यादा भयप्रद...रौरव
मेरा हृदय-प्रदेश !!!

इतिहासों में नहीं लिखा जायेगा।
ओ इस तम में छिपी हुई कौरव सेनाओ !
आओ ! हर धोखे से मुझे लील लो,
मेरे जीवन को दृष्टान्त बनाओ;
नये महाभारत का व्यूह वरूँ मैं।
कुण्ठित शस्त्र भले हों हाथों में
लेकिन लड़ता हुआ मरूँ मैं।

आग जलती रहे



एक तीखी आँच ने
इस जन्म का हर पल छुआ,
आता हुआ दिन छुआ
हाथों से गुज़रता कल छुआ
हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,
फूल-पत्ती, फल छुआ
जो मुझे छूने चली
हर उस हवा का आँचल छुआ !
...प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता
आग के सम्पर्क से
दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में
मैं उबलता रहा पानी-सा
परे हर तर्क से।
एक चौथाई उमर
यों खौलते बीती बिना अवकाश
सुख कहाँ
यों भाप बन-बनकर चुका,
रीता,
भटकता-
छानता आकाश !
आह ! कैसा कठिन
...कैसा पोच मेरा भाग !
आग, चारों ओर मेरे
आग केवल भाग !
सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,
पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोयी-;
वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप
ज्यों कि लहराती हुई ढकनें उठाती भाप !

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे,
ज़िन्दगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे।

सूखे फूल : उदास चिराग़



आज लौटते घर दफ़्तर से पथ में कब्रिस्तान दिखा
फूल जहाँ सूखे बिखरे थे और’ चिराग़ टूटे-फूटे
यों ही उत्सुकता से मैंने थोड़े फूल बटोर लिये
कौतूहलवश एक चिराग़ उठाया औ’ संग ले आया

थोड़ा-सा जी दुखा, कि देखो, कितने प्यारे थे ये फूल
कितनी भीनी, कितनी प्यारी होगी इनकी गन्ध कभी,
सोचा, ये चिराग़ जिसने भी यहाँ जलाकर रक्खे थे
उनके मन में होगी कितनी गहरी पीड़ा स्नेह-पगी
तभी आ गयी गन्ध न जाने कैसे सूखे फूलों से
घर के बच्चे ‘फूल-फूल’ चिल्लाते आये मुझ तक भाग,
मैं क्या कहता आखिर उस हक़ लेनेवाली पीढ़ी से
देने पड़े विवश होकर वे सूखे फूल, उदास चिराग़

साँसों की परिधि



जैसे अन्धकार में
एक दीपक की लौ
और उसके वृत्त में करवट बदलता-सा
पीला अँधेरा।
वैसे ही
तुम्हारी गोल बाँहों के दायरे में
मुस्करा उठता है
दुनिया में सबसे उदास जीवन मेरा।
अक्सर सोचा करता हूँ
इतनी ही क्यों न हुई
आयु की परिधि और साँसों का घेरा।

अनुकूल वातावरण



उड़ते हुए गगन में
परिन्दों का शोर
दर्रों में, घाटियों में
ज़मीन पर
हर ओर...

एक नन्हा-सा गीत
आओ
इस शोरोगुल में
हम-तुम बुनें,
और फेंक दें हवा में उसको
ताकि सब सुने,
और शान्त हों हृदय वे
जो उफनते हैं
और लोग सोचें
अपने मन में विचारें
ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं।

एक यात्रा-संस्मरण



बढ़ती ही गयी ट्रेन महाशून्य में अक्षत
यात्री मैं लक्ष्यहीन
यात्री मैं संज्ञाहत।

छूटते गये पीछे
गाँवों पर गाँव
और नगरों पर नगर
बाग़ों पर बाग़
और फूलों के ढेर
हरे-भरे खेत औ’ तड़ाग
पीले मैदान
सभी छूटते गये पीछे...

लगता था
कट जायेगा अब यह सारा पथ
बस यों ही खड़े-खड़े
डिब्बे के दरवाज़े पकड़े-पकड़े।

बढ़ती ही गयी ट्रेन आगे
और आगे-
राह में वही क्षण
फिर बार-बार जागे
फिर वही विदाई की बेला
औ’ मैं फिर यात्रा में-
लोगों के बावजूद
अर्थशून्य आँखों से देखता हुआ तुमको
रह गया अकेला।

बढ़ती ही गयी ट्रेन
धक-धक धक-धक करती
मुझे लगा जैसे मैं
अन्धकार का यात्री
फिर मेरी आँखों में गहराया अन्धकार
बाहर से भीतर तक भर आया अन्धकार।

कौन-सा पथ...



तुम्हारे आभार की लिपि में प्रकाशित
हर डगर के प्रश्न हैं मेरे लिए पठनीय
कौन-सा पथ कठिन है...?
मुझको बताओ
मैं चलूँगा।

कौन-सा सुनसान तुमको कोचता है
कहो, बढ़कर उसे पी लूँ
या अधर पर शंख-सा रख फूँक दूँ
तुम्हारे विश्वास का जय-घोष
मेरे साहसिक स्वर में मुखर है।

तुम्हारा चुम्बन
अभी भी जल रहा है भाल पर
दीपक सरीखा
मुझे बतलाओ
कौन-सी दिशि में अँधेरा अधिक गहरा है !

आवाज़ों के घेरे



आवाज़ें...
स्थूल रूप धरकर जो
गलियों, सड़कों में मँडलाती हैं,
क़ीमती कपड़ों के जिस्मों से टकराती हैं,
मोटरों के आगे बिछ जाती हैं,
दूकानों को देखती ललचाती हैं,
प्रश्न चिह्न बनकर अनायास आगे आ जाती हैं-
आवाज़ें !
आवाज़ें, आवाज़ें !!

मित्रों !
मेरे व्यक्तित्व
और मुझ-जैसे अनगिन व्यक्तित्वों का क्या मतलब ?
मैं जो जीता हूँ
गाता हूँ
मेरे जीने, गाने
कवि कहलाने का क्या मतलब ?
जब मैं आवाज़ों के घेरे में
पापों की छायाओं के बीच
आत्मा पर बोझा-सा लादे हूँ;


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai